श्री वैष्णो देवी चालीसा (३)

॥ दोहा ॥ गरूड़ वाहिनी वैष्णवी त्रिकुटा पर्वत धाम । काली, लक्ष्मी, सरस्वती शक्ति तुम्हें प्रणाम ॥ ॥ चौपाई ॥ नमो नमो वैष्णो वरदानी । कलिकाल में शुभ कल्यानी ॥ मणि पर्वत पर ज्योति तुम्हारी । पिंडी रूप में हो अवतारी ॥ देवी-देवता अंष दियो है । रत्नाकर घर जन्म लियो है ॥ करी तपस्या राम को पाऊं । त्रेता की शक्ति कहलाऊं ॥ कहा राम मणि पर्वत जाओ । कलियुग की देवी कहलाओ ॥ विष्णु रूप से कल्की बनकर । लूंगा शक्ति रूप बदलकर ॥ तब तब त्रिकुटा घाटी जाओ । गुफा अंधेरी जाकर पाओ ॥ काली लक्ष्मी सरस्वती मां । करेंगी पोषण पार्वती मां ॥ ब्रह्मा, विष्णु शंकर द्वारे । हनुमत, भैंरो प्रहरी प्यारे ॥ रिद्धि, सिद्धि चंवर डुलायें । कलियुग वासी पूजन आवें ॥ पान सुपारी ध्वजा नारियल । चरणामृत चरणों का निर्मल ॥ दिया फलित वर मां मुस्काई । करन तपस्या पर्वत आई ॥ कलि-काल की भड़की ज्वाला । इक दिन अपना रूप निकाला ॥ कन्या बन नगरोटा आई । योगी भैरों दिया दिखाई ॥ रूप देख सुन्दर ललचाया । पीछे-पीछे भागा आया ॥ कन्याओं के साथ मिली मां । कौल-कंदौली तभी चली मां ॥ देवा माई दर्षन दीना । पवन रूप हो गई प्रवीणा ॥ नवरात्रों में लीला रचाई । भक्त श्रीधर के घर आई ॥ योगिन को भण्डारा दीना । सबने रूचिकर भोजन कीना ॥ मांस, मदिरा भैरों मांगी । रूप पवन कर इच्छा त्यागी ॥ बाण मारकर गंगा निकाली । पर्वत भागी हो मतवाली ॥ चरण रखे आ एक षिला जब । चरण-पादुका नाम पड़ा तब ॥ पीछे भैराने था बलकारी । छोटी गुफा में जाय पधारी ॥ नौ माह तक किया निवासा । चली फोड़कर किया प्रकाषा ॥ आद्या शक्ति-ब्रह्म कुमारी । कहलाई मां आदि कुंवारी ॥ गुफा द्वार पहुंची मुस्काई । लांगुर वीर ने आज्ञा पाई ॥ भागा-भागा भैराने आया । रखा हित निज शस्त्र चलाया ॥ पड़ा शीष जा पर्वत ऊपर । किया क्षमा जा दिया उसे वर ॥ अपने संग में पुजवाऊंगी । भैराने घाटी बनवाऊंगी ॥ पहले मेरा दर्षन होगा । पीछे तेरा सुमरन होगा ॥ बैठ गई मां पिण्डी होकर । चरणों में बहता जल झर-झर ॥ चौंसठ योगिनी-भैराने बरवन । सप्तऋषि आ करते सुमरन ॥ घंटा ध्वनि पर्वत बाजे । गुफा निराली सुन्दर लांगे ॥ भक्त श्रीधर पूजन कीना । भक्ति सेवा का वर लीना ॥ सेवक ध्यानूं तुमको ध्याया । ध्वजा व चोला आन चढ़ाया ॥ सिंह सदा दर पहरा देता । पंजा शेर का दुःख हर लेता ॥ जम्बू द्वीप महाराज मनाया । सर सोने का छत्र चढ़ाया ॥ हीरे की मूरत संग प्यारी । जगे अखण्ड इक जोत तुम्हारी ॥ आष्विन चैत्र नवराते आऊं । पिण्डी रानी दर्षन पाऊं ॥ सेवक 'षर्मा' शरण तिहारी । हरो वैष्णो विपत हमारी ॥ ॥ दोहा ॥ कलियुग में तेरी, है मां अपरम्पार । धर्म की हानि हो रही, प्रगट हो अवतार ।

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