श्री चित्रगुप्त चालीसा (२)

॥ दोहा ॥ मंगलम मंगल करन, सुन्दर बदन विशाल । सोहे कर में लेखनी, जय जय दीन दयाल ॥ सत्य न्याय अरु प्रेम के, प्रथम पूज्य जगपाल । हाथ जोड़ विनती करु, वरद हस्त धरु भाल ॥ ॥ चौपाई ॥ चित्रगुप्त बल बुद्धि उजागर, त्रिकालज्ञ विधा के सागर । शोभा दक्षिण पति जग वनिदत, हसमुख प्रिय सब देव अनन्दित ॥ शान्त मधुर तनु सुन्दर रुपा, देत न्याय सम द्रष्टि अनूपा । क्रीट मुकुट कुन्डल धुति राजे, दहिन हाथ लेखनी विराजे ॥ वाम अंग रिद्धि सिद्धि विराजे, जाप यज्ञ सौ कारज साजे । भाव सहित जो तुम कह ध्यावे, कोटि जन्म के पाप नसावे ॥ साधन बिन सब ज्ञान अधूरा, कर्म जोग से होवे पूरा । तिन्ह मह प्रथम रेख तुम पार्इ, सब कह महिमा प्रकट जनार्इ ॥ न्याय दया के अदभुत जोगी, सुख पावे सब योगी भोगी । जो जो शरण तिहारी आवे, वुधिवल, मनवल, धनवल पावे ॥ तुम व्रहमा के मानस पूता, सेवा में पार्षद जम दूता । सकल जीव देव कर्मन में वांधे, तिनको न्याय तुम्हारे कांधे ॥ तुम तटस्थ सब ही की सेवा, सब समान मानस अरु देवा । निर्विध्न प्रतिनिधि ब्रहमा के, पालक सत्य न्याय बसुधा के ॥ तुम्हारी महिमा पार न पावे, जो शारद शत मुख गुण गावें । चार वेद के रक्षक त्राता, मर्यादा के जीवन दाता ॥ ब्रहमा रचेऊ सकल संसारा, चित्त तत्व सब ही कह पारा । तिन चित्तन में वासु तुम्हारा, यह विधि तुम व्यापेऊ संसारा ॥ चित्त अद्रश्य रहे जग माही, भौतिक दरसु तुम्हारो नाही । जो चित्तन की सीमा माने, ते जोगी तुम को पहचाने ॥ हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा, सुगम करहु निज दया अधारा । अब प्रभु कृपा करहु एहि भांति, सुभ लेखनी चे दिन राती ॥ गुप्त चित्र कह प्रेरण कीजै, चित्रगुप्त पद सफल करीजै । आए हम सब शरण तिहारी, सफल करहु साधना हमारी ॥ जेहि जेहि जोनि भभें जड़ जीवा, सुमिरै तहां तुम्हारी सीवा । जीवन पाप पुण्य तै ऊची, पूजन उपासना सौ सींचौ ॥ जो-जो कृपा तुम्हारी पावें, सो साधन को सफल बनावें । सुमिरन करें सुरुचि बड़भागी, लहै मनोरथ गृही विरागी ॥ अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, पावें कर्मजोग ते ताता । अंधकार ते आन बचाओं, मारग विधिवत देव बताओं ॥ शाश्वत सतोगुणी सतरुप, धर्मराज के धर्म सहूत । मसि लेखन के गौरव दाता, न्याय सत्य के पूरण त्राता ॥ जो जो शरण तिहारी आबे, दिव्य भाव चित्त में उपजाबे । मन बुधि चित्त अहिमति के देवा, आरत हरहु देउ जन सेवा ॥ श्रमतजि किमपि प्रयोजन नाही, ताते रहहु गुपुत जग माही । धर्म कर्म के मर्मकज्ञाता, प्रथम न्याय पद दीन्ह विधाता ॥ हम सब शरण तिहारि आये, मोह अरथ जग में भरमाये । अब वरदान देहु एहि भांति, न्याय धर्म के बने संधाति ॥ दिव्य भाव चित्त में उपजावें, धर्म की सेवा पावे । कर्मजोग ते जग जस पावें, तुम्हरि महिमा प्रकट जनावें ।

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