श्री सूर्यदेव चालीसा (१)

॥ दोहा ॥ श्री रविहरत आ होरात तमे, अगणित किरण पसारी, वंदन करू टन चरण म़ें, अर्घ देऊ जल धारी, सकल श्रीस्टी के स्वामी हो, सचराचर के नाथ, निसदिन होत हे तुमसे ही, होवत संध्या प्रभात ॥ ॥ चौपाई ॥ जय भगवान सूर्य तुमहारी, जय खगेश दिनकर सुभकारी, तुम हो श्रिस्टी के नेत्रा स्वरूपा, त्रिगुण धारी त्रै वेद स्वरूपा ॥ तुम ही करता पालक संहारक, भुवन चतुर्दश के संचालक, सुन्दर वदन चतुर्भुज धारी, रश्मी रती तुम गगन विहारी, चकरा शंख आरू स्वेट कमलधर, वरमुद्रा सोहत चोटेकार, शीश मुकट कुंडल गाल माला, चारू तिलक तव भाल विशाला ॥ शाख्त अश्वा रात द्रुत गामी, अरुण सारथी गति अविरामी, राख्त वरण आभुसन धारक, अतिप्रिया तोहे लाल पदारथ, सर्वतमा काहे तुम्ही ऋग्वेदा, मेटरा काहे तुम को सब वेडा, पांच देव म़ें पूजे जाते, मन वंचित फल साधक पते ॥ द्वादश नाम जाप आऔधरक, रोग शोक आरू कस्त निवारक, मया कुन्ती तव ध्यान लगायो, दानवीर सूट कारण सो पायो, राजा युधिस्ठिर तव जस गयो, अक्षय पटरा वो बन म़ें पायो, शास्त्रा त्याग अर्जुन अकुरयो, बन आदित्य हृदय से पायो ॥ विन्द्याचल तब मार्ग म़ें आयो, हाहा कर तिमिर से छायो, मुनि अगस्त्य गिरि गर्व मीटायो, निजटक बन से विंध्या ना वयो, मुनि अगस्तय तव महिमा गयी, सुमिर भये विजयी रघुराई, तोहे विरोक मधुर फल जाना, मुख म़ें लीन्ही तोहे हनुमाना ॥ तव नंदन शनिदेव कहावे, पवन ते सूट शनी तीर मिटवे, यज्ना व्रत स्तुति तुम्हारी किन्ही, भेट शुक्ला यगुर्वेद की दीन्ही, सूर्यमुखी खरी तर तव रूपा, कृष्णा सुदर्शन भानु स्वरूपा, नमन तोहे ओंकार स्वरूपा, नमन आत्मा आरू काल स्वरूपा ॥ डिग-दिगंत तव तेज प्रकाशे, उज्ज्वल रूप तुमहि आकाशे, दस दिगपाल करत तव सुमिरन, आंजन नेत्रा करत हे सुमिरन, त्रिविध टाप हारता तुम भगवान, ज्ञान ज्योति करता तुम भगवान, सफल बनावे तव आराधन, गयत्री जाप सार्ह हे साधन, संध्या त्रिकल करत जो कोई, पावे कृपा सदा तव वोही, चित्त शांती सूर्यशटक देवे, व्याधि उपाधी सब हर लेवे, आस्ठदल कमल यंत्रा सुभकारी, पूजा उपसन तव सुखकारी, माघ माज़ सुद्ध सप्तमी पवन, आरंभ हो तव सुभ व्रत पालन ॥ भानु सप्तमी मंगल करी, भक्ति दायिनी दोषं हरि, रवि वासर जो तुम को ध्यावे, पुत्रादिक सुख वैभव पावे, पाप रूपी पर्वत के विनाशी, वज्र रूप तुम हो अविनाशी, राहू आन तव ग्रास बनावे, ग्रहण सूर्य तब को लग जाये ॥ धर्म दान टाप करत है साधक, मिटत राहू तब पीड़ा बधक, सूर्य देव तब कृपा कीजे, दीर्घा आयु बाल बुद्धि डेजे, सूर्य उपासना कर नित ध्यावे, कुस्त रोग से मुक्ति पावे, दक्षिण दिशा तोरी गति ग्यावे, दक्षिणायन वोही केहलावे ॥ उत्तर मार्जी तो उरु रथ होवे, उतरायण तब वो केहलावे, मन आरू वचन कर्म हो पवन, संयम करत भले नित आर्धन ॥ ॥ दोहा ॥ भारत दस चिंतन करत, धार दिन कर तव ध्यान, रखियो कृपा इस भक्त पे, तुम्हारी सूर्य भगवान ॥

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