श्री साँई चालीसा
पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं । कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं ॥१॥ कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना । कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना ॥२॥ कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं । कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं ॥३॥ कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई । कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई ॥४॥ शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते । कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते ॥५॥ कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान । बड़े दयालु दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान ॥६॥ कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात । किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात ॥७॥ आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर । आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर ॥८॥ कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर । और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर ॥९॥ जैसे-जैसे अमर उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान । घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान ॥१०॥ दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम । दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम ॥११॥ बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन । दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन ॥१२॥ कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान । एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान ॥१३॥ स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल । अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल ॥१४॥ भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान । माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान ॥१५॥ लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो । झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो ॥१६॥ कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे । इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे ॥१७॥ कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया । आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया ॥१८॥ दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर । और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर ॥१९॥ अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश । तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीश ॥२०॥ 'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर । कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर ॥२१॥ अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार । पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ॥२२॥ तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार । सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार ॥२३॥ मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास । साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस ॥२४॥ मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी । तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी ॥२५॥ सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था । दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था ॥२६॥ धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था । बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था ॥२७॥ ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था । जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था ॥२८॥ बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार । साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार ॥२९॥ पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति । धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति ॥३०॥ जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया । संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया ॥३१॥ मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से । प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से ॥३२॥ बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में । इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में ॥३३॥ साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ । लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ ॥३४॥ 'काशीराम' बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था । मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था ॥३५॥ सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में । झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में ॥३६॥ स्तब्ध निशा थी, थे सोय, रजनी आंचल में चाँद सितारे । नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ॥३७॥ वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से काशी । विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी ॥३८॥ घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी । मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई ॥३९॥ लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो । आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥४०॥ बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में । जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में ॥४१॥ अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई । जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई ॥४२॥ क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो । लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो ॥४३॥ उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने । सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने ॥४४॥ और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला । हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला ॥४५॥ समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में । क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में ॥४६॥ उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है । उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है ॥४७॥ इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई । लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई ॥४८॥ लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई । सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई ॥४९॥ शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल । आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल ॥५०॥ आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी । और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी ॥५१॥ आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी । उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी ॥५२॥ जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में । उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में ॥५३॥ युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी । आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्तर्यामी ॥५४॥ भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई । जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई ॥५५॥ भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला । राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला ॥५६॥ घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना । मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना ॥५७॥ चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी । और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी ॥५८॥ सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया । जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया ॥५९॥ ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे । पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥६०॥ साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई । जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई ॥६१॥ तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो । अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो ॥६२॥ जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा । और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा ॥६३॥ तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी । तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी ॥६४॥ जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को । एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को ॥६५॥ धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया । दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया ॥६६॥ गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े । साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े ॥६७॥ इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान । दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान ॥६८॥ एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया । भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया ॥६९॥ जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण । कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥७०॥ औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति । इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति ॥७१॥ अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से । तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से ॥७२॥ लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी । यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी ॥७३॥ जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए । पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए ॥७४॥ औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा । मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा ॥७५॥ दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो । अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो ॥७६॥ हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी । प्रमुदित वह भी मन-ही-मन था, लख लोगों की नादानी ॥७७॥ खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक । सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक ॥७८॥ हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ । या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ ॥७९॥ मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को । कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ॥८०॥ पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को । महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को ॥८१॥ तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को । काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को ॥८२॥ पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर । सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर ॥८३॥ सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में । अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में ॥८४॥ स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर । बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर ॥८५॥ वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल । उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल ॥८६॥ जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है । उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है ॥८७॥ पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के । दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के ॥८८॥ स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में । गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में ॥८९॥ ऐसे अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर । समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥९०॥ नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने । दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने ॥९१॥ सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई । पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई ॥९२॥ सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान । सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान ॥९३॥ स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे । बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे ॥९४॥ कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे । प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे ॥९५॥ रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके । बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे ॥९६॥ ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे । अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे ॥९७॥ सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे । दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे ॥९८॥ जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी । जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी ॥९९॥ धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए । धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए ॥१००॥ काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता । वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता ॥१०१॥ गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर । मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर ॥१०२॥