श्री विष्णु चालीसा (२)

॥ दोहा ॥ जै जै श्री जगत पति जगदाधार अनन्त । विश्वेश्वर अखिलेश अज सर्वेश्वर भगवन्त ॥ ॥ चौपाई ॥ जै जै धरणीधर श्रुति सागर । जयति गदाधर सद्गुण आगर ॥ श्री वसुदेव देवकी नंदन । वासुदेव नाशन भव फन्दन ॥१॥ नमो नमो सचराचर स्वामी । परंब्रह्म प्रभु नमो नमो नमामि ॥ नमो नमो त्रिभुवन पति ईश । कमलापति केशव योगीश ॥२॥ गरुड़ध्वज अज भव भय हारी । मुरलीधर हरि मदन मुरारी ॥ नारायण श्रीपति पुरुषोत्तम । पद्मनाभि नरहरि सर्वोत्तम ॥३॥ जै माधव मुकुन्द वनमाली । खल दल मर्दन दमन कुचाली ॥ जै अगणित इन्द्रिय सारंगधर । विश्व रुप वामन आन्नद कर ॥४॥ जै जै लोकाध्यक्ष धनंजय । सहस्त्रज्ञ जगन्नाथ जयति जै ॥ जै मधुसूदन अनुपम आनन । जयति वायु वाहन वज्र कानन ॥५॥ जै गोविन्द जनार्दन देवा । शुभ फल लहत गहत तव सेवा ॥ श्याम सरोरुह सम तन सोहत । दर्शन करत सुर नर मुनि मोहत ॥६॥ भाल विशाल मुकुट सिर साजत । उर वैजन्ती माल विराजत ॥ तिरछी भृकुटि चाप जनु धारे । तिन तर नैन कमल अरुनारे ॥७॥ नासा चिबुक कपोल मनोहर । मृदु मुस्कान कुञ्ज अधरन पर ॥ जनु मणि पंक्ति दशन मन भावन । बसन पीत तन परम सुहावन ॥८॥ रुप चतुर्भज भूषित भूषण । वरद हस्त मोचन भव दूषण ॥ कंजारुन सम करतल सुन्दर । सुख समूह गुण मधुर समुन्दर ॥९॥ कर महँ लसित शंख अति प्यारा । सुभग शब्द जै देने हारा ॥ रवि सम चक्र द्वितीय कर धारे । खल दल दानव सैन्य संहारे ॥१०॥ तृतीय हस्त महँ गदा प्रकाशन । सदा ताप त्रय पाप विनाशन ॥ पद्म चतुर्थ हाथ महँ धारे । चारि पदारथ देने हारे ॥११॥ वाहन गरुड़ मनोगतिवाना । तिहुँ त्यागत जन हित भगवाना ॥ पहुँचि तहाँ पत राखत स्वामी । हो हरि सम भक्तन अनुरागी ॥१२॥ धनि धनि महिमा अगम अन्नता । धन्य भक्तवत्सल भगवन्ता ॥ जब जब सुरहिं असुर दुख दीन्हा । तब तब प्रकटि कष्ट हरि लीन्हा ॥१३॥ सुर नर मुनि ब्रहमादि महेशू । सहि न सक्यो अति कठिन कलेशू ॥ तब तहँ धरि बहुरुप निरन्तर । मर्द्यो दल दानवहि भयंकर ॥१४॥ शय्या शेष सिन्धु बिच साजित । संग लक्ष्मी सदा विराजित ॥ पूरन शक्ति धन्य धन खानी । आन्नद भक्ति भरणी सुख दानी ॥१५॥ जासु विरद निगमागम गावत । शारद शेष पार नहीं पावत ॥ रमा राधिका सिय सुख धामा । सोही विष्णु कृष्ण अरु रामा ॥१६॥ अगणित रुप अनूप अपारा । निर्गुण सगण स्वरुप तुम्हारा ॥ नहिं कछु भेद वेद अस भासत । भक्तन से नहिं अन्तर राखत ॥१७॥ श्री प्रयाग दुवाँसा धामा । सुन्दरदास तिवारी ग्रामा ॥ जग हित लागि तुम्हिं जगदीशा । निज मति रच्यो विष्णु चालीसा ॥१८॥ जो चित्त दै नित पढ़त पढ़ावत । पूरन भक्त्ति शक्ति सरसावत ॥ अति सुख वसत रुज ऋण नाशत । वैभवविकासत सुमति प्रकाशत ॥१९॥ आवत सुख गावत श्रुति शारद । भाषन व्यास वचन ऋषि नारद ॥ मिलत सुभग फल शोक नसावत । अन्त समय जन हरि पद पावत ॥२०॥ ॥ दोहा ॥ प्रेम सहित गहि ध्यान महँ हृदय बीच जगदीश । अर्पित शालिग्राम कहँ करि तुलसी नित शीश ॥ क्षणभंगुर तनु जानि करि अहंकार परिहार । सार रुप ईश्वर लखै तजि असार संसार ॥ सत्य शोध करि उर गहै एक ब्रह्म ओंकार । आत्मबोध होवै तबै मिलै मुक्त्ति के द्वार ॥ शान्ति और सद्भाव कहँ जब उर फूलहिं फूल । चालिसा फल लहहिं जहँ रहहिं ईश अनुकूल ॥

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