श्री विष्णु चालीसा (१)

॥ दोहा ॥ विष्णु सुनिए विनय सेवक की चितलाय । कीरत कुछ वर्णन करूं दीजै ज्ञान बताय ॥ ॥ चौपाई ॥ नमो विष्णु भगवान खरारी,कष्ट नशावन अखिल बिहारी । प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी,त्रिभुवन फैल रही उजियारी ॥१॥ सुन्दर रूप मनोहर सूरत,सरल स्वभाव मोहनी मूरत । तन पर पीताम्बर अति सोहत,बैजन्ती माला मन मोहत ॥२॥ शंख चक्र कर गदा बिराजे,देखत दैत्य असुर दल भाजे । सत्य धर्म मद लोभ न गाजे,काम क्रोध मद लोभ न छाजे ॥३॥ सन्तभक्त सज्जन मनरंजन,दनुज असुर दुष्टन दल गंजन । सुख उपजाय कष्ट सब भंजन,दोष मिटाय करत जन सज्जन ॥४॥ पाप काट भव सिन्धु उतारण,कष्ट नाशकर भक्त उबारण । करत अनेक रूप प्रभु धारण,केवल आप भक्ति के कारण ॥५॥ धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा,तब तुम रूप राम का धारा । भार उतार असुर दल मारा,रावण आदिक को संहारा ॥६॥ आप वाराह रूप बनाया,हरण्याक्ष को मार गिराया । धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया,चौदह रतनन को निकलाया ॥७॥ अमिलख असुरन द्वन्द मचाया,रूप मोहनी आप दिखाया । देवन को अमृत पान कराया,असुरन को छवि से बहलाया ॥८॥ कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया,मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया । शंकर का तुम फन्द छुड़ाया,भस्मासुर को रूप दिखाया ॥९॥ वेदन को जब असुर डुबाया,कर प्रबन्ध उन्हें ढुढवाया । मोहित बनकर खलहि नचाया,उसही कर से भस्म कराया ॥१०॥ असुर जलन्धर अति बलदाई,शंकर से उन कीन्ह लडाई । हार पार शिव सकल बनाई,कीन सती से छल खल जाई ॥११॥ सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी,बतलाई सब विपत कहानी । तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी,वृन्दा की सब सुरति भुलानी ॥१२॥ देखत तीन दनुज शैतानी,वृन्दा आय तुम्हें लपटानी । हो स्पर्श धर्म क्षति मानी,हना असुर उर शिव शैतानी ॥१३॥ तुमने ध्रुव प्रहलाद उबारे,हिरणाकुश आदिक खल मारे । गणिका और अजामिल तारे,बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे ॥१४॥ हरहु सकल संताप हमारे,कृपा करहु हरि सिरजन हारे । देखहुं मैं निज दरश तुम्हारे,दीन बन्धु भक्तन हितकारे ॥१५॥ चहत आपका सेवक दर्शन,करहु दया अपनी मधुसूदन । जानूं नहीं योग्य जब पूजन,होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन ॥१६॥ शीलदया सन्तोष सुलक्षण,विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण । करहुं आपका किस विधि पूजन,कुमति विलोक होत दुख भीषण ॥१७॥ करहुं प्रणाम कौन विधिसुमिरण,कौन भांति मैं करहु समर्पण । सुर मुनि करत सदा सेवकाईहर्षित रहत परम गति पाई ॥१८॥ दीन दुखिन पर सदा सहाई,निज जन जान लेव अपनाई । पाप दोष संताप नशाओ,भव बन्धन से मुक्त कराओ ॥१९॥ सुत सम्पति दे सुख उपजाओ,निज चरनन का दास बनाओ । निगम सदा ये विनय सुनावै,पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै ॥२०॥

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