श्री गायत्री चालीसा (२)
॥ दोहा ॥ जयति जयति अम्बाई जयति, जय गायत्री देवी, ब्रहमज्ञान धारधी ह्रदय, आदि शक्ति सुर दैवी, जयति जयति गायत्री अम्ब, कतहु कष्ट न कारु विलम्ब, तब ध्यावत विधि विष्णु महेश, लहत अगम सुख शांति हमेश, तुहीजन ब्रह्म ज्ञान ुर धारिणी । जगतारिणी भाव मुक्ति प्रसारिणी; जन तन संकट नासन हारी; हैं पिशाच्च परैत दै तरी; ॐ हरिम, श्रीम, कलीम, मैढ़, प्रभ, जैएवं, ज्योति, प्रच्चंद; जग क्रांति, जाग्रति, प्रगति, रच्छन, शक्ति अखण्ड; प्रणवो सावित्री, स्वाद, स्वः पूरन काम; शांति जननि, मंगल करनी, गायत्री सुख धाम ॥ ॥ चौपाई ॥ ॐ भूर्भुवस्वः ॐ युत जननी, गायत्री निज कलिमल दाहिनी । अक्षर चौबिस परम पुनैएत, इनमे बसै शास्त्र श्रुति गाइएट ॥ शाश्वत सतोगुणी सत्रूप, सत्य सनातन सुद्ध अनूप । हंसारूढ स्वेताम्भर धरी, स्वर्ण क्रांति सुछि गगन बिहारी ॥ पुस्तक पुष्प कंडल मॉल, शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाल । ध्यान धरत पुलकित हित होई, सुख उपजत दुःख दुर्मति खोयी ॥ कामधेनु तुम सुर तरु छाय, निराकार की अद्भुत मई । तुम्हारी शरण ग्रहइ जब कोई, तरै शकत संकट सो सोइ ॥ सरस्वती लक्ष्मी तुम काली, डाईआईप तुम्हारी ज्योति निराली । तुम्हारी महिम पार न पावे, जो शरद सुतमुख गुण गावैं ॥ चार वेद की मातु पुनिएट, तुम ब्रह्माणी गौरी साइऐट । महामंत्र जितने जग माहीं, कोउ गायत्री सम नहीं ॥ सुमिरत ह्रदय में ज्ञान प्रकाशै, आलस पाप अविद्य नासै । श्रिस्ति बाइएज जग जननि भवानी, कल रात्रि वार्ड कल्याणी ॥ ब्रह्म विष्णु रुद्रु सुर जैतै, तुम सौ पावै सुरत तैतई । तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे, जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥ महिम अपरंपार तुम्हारी, जय जय जय त्रिपाद भयहारी । पूरित सकल ज्ञान विज्ञानं, तुम सम अधिक न जग में ॥ तुमहिं जणू कहु रहे न शेष, तुमहिं पाइ कछु रहनाइ न क्लैश । जानत तुमहि तुमहि नहींहै जय, पारस परस कुधातु सुहाई ॥ तुम्हारी शक्ति डाइआइपै सब ठाई, मत तुम सब ठौर समाई । ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घिनैरै, तूं गतिवान तुंहरे प्रेरइ ॥ सकल श्रीति की प्राण विधत, पालक पोषक नाशक तरत । मातेश्वरी डे व्रत धारी, तुन सन तरे पटकि भारी ॥ जापर कृप तुमारी होइ, ता पर कृप करै सब कोई । मंद बुद्धि ते बुद्धि बल पावैं, रोगी रोग रहित हो जावैं ॥ दरिद्र मिटै कटाई सब पिएर, नाशै दुःख हरै भव पिएर । गृह कलेश चित छींट भरी, नासै गायत्री भाव हरी ॥ सन्तति हिन् सु सन्तति पावै, सुख संपति युत मोद मनावै । भूत पिशाच सब भय खावे, यम के दूत निकट नहिं आवै ॥ जो साध्व सुमरै चित लाई, अछ्हात सुहाग सैड सुखदाई । घर वर सुखप्रद रहै कुमारी, विध्व रहै सत्यव्रत धरी ॥ जयति जयति जगदम्ब भवानी, तुम सब और दयालु न दानी । जो सद्गुरु सो दीक्ष पावै, सो साधन को सफल बनावे ॥ सुमिरन करै सुरुछि बड़भागी, लहैं मनोरथ गृही विरागी । अष्ट सिद्धि नव निधि की दाट, सब समर्थ गायत्री मत ॥ ऋषि मुनि यति, तपस्वी, जोगी, अरतरथि चिन्तित भोगी । जो जो शरण तुम्हारी ावै, सो सो मनवांछित फल पावैं ॥ बल बुद्धि विद्य शाइएल स्वभाव, धन वैभव यश तेज उछाउ । सकल बढ़ै उपजे सुख नान, जो यह पाठ करै धरि धयान ॥ ॥ दोहा ॥ यैह छालिस भक्ति युत पाठ करै जो कोई । ता पर कृपा प्रषांत, गायत्री की होय ॥