श्री कृष्ण आरती (४)

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥ गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला । श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला । गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली । लटन में ठाढ़े बनमाली; भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक; ललित छवि श्यामा प्यारी की ॥ आरती कुंजबिहारी की… श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की… कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं । गगन सों सुमन रासि बरसै; बजे मिरदंग, ग्वालिन संग; अतुल रति गोप कुमारी की ॥ आरती कुंजबिहारी की… श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की… जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा । स्मरन ते होत मोह भंगा; बसी सिव सीस, जटा के बीच, हरै अघ कीच; चरन छवि श्रीबनवारी की ॥ आरती कुंजबिहारी की… श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की… चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू चहूँ दिसि गोपि ग्वाल धेनू; हंसत मृदु मंद, चांदनी चंद, कटत भव फंद; टेर सुन दीन भिखारी की ॥ आरती कुंजबिहारी की… श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की…

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