श्री काली चालीसा (२)
॥ दोहा ॥ जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार । महिष मर्दिनी कालिका, देहु अभय अपार ॥ ॥ चौपाई ॥ रि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥१॥ अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥२॥ भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥३॥ दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥४॥ चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥५॥ सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥६॥ अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥७॥ भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥८॥ महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥९॥ पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥१०॥ शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥११॥ तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥१२॥ रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥१३॥ नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥१४॥ कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥१५॥ महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥१६॥ भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥१७॥ आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥१८॥ कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥१९॥ ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥२०॥ कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥२१॥ सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥२२॥ त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥२३॥ खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥२४॥ रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥२५॥ तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥२६॥ ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥२७॥ तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥२८॥ बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥२९॥ करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥३०॥ तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥३१॥ शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥३२॥ मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥३३॥ दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥३४॥ संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥३५॥ प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥३६॥ काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥३७॥ दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥३८॥ करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥३९॥ सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥४०॥ ॥ दोहा ॥ प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ । तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥